मानते हो देवी और कहते हो मा जिन्हें,
रखते हो सीमित उन्हें चौखट तक!
सम्मान बस नाम का दे रखा है उन्हें,
चलेगा ये सिलसिला आखिर कब तक?

माहवारी में ना जलाएंगे वे चूल्हा,
सिमट कर रह जाएंगे कोने तक!
ना प्रसाद चलेगा ना देवों को छूना,
चलेगी ये छुआछूत आखिर कब तक?

हर पहर रहना पड़ता है सावधान उन्हें,
हर कोई देखता है गर्दन से कमर तक!
सिर्फ उपभोग की वस्तु नहीं है नारी,
समझेगा ये उपदेश, ऐ इंसान तू कब तक?

मैं सोचता हु उठता कैसे वो हाथ होगा,
क्या पहोंच सकी तेरी ताकत सिर्फ घर तक?
जो खुद ही जड़े काट रहा हो अपनी,
खड़ा रहेगा वो पेड़ आखिर कब तक?
-ऋत्वीक