बदनामी का आलम कुछ यूँ है बरपा
चुरा ली गयी नज़रे, दूर हुए सखा
चला कुछ ऐसे ज़लीली का आलम
पीठ पीछे क़त्ल, सरेआम हुआ
जनाज़े में तो शरीक होते है सब अपने
वो मकाम आया भी नहीं, छोड़कर भागे कितने
गोबर को भी है यहां, सम्मान थोड़ा ही सही
मैं उठ जाता हु अक्सर, गर मिल भी जाए कही
दुआओ का असर कुछ कम है जान पड़ा
किस्मत नही मगर, एक प्यादा शिद्दत से लड़ा
मिल भी जाए तो, किस काम की है ये दुनिया
बेईज्जत कर बदनाम को, गिनाती है नेकियाँ
ख़ौफ़ज़दा है निगाहे, यहां हर गुनहगार की
जला देती है महफिले लाखो, बद्दुआ एक बेगुनाह की
-ऋत्वीक