निकल पड़े थे नौजवान
ग़ुलामी का बदला लेने
मार के गोली सीने पे
अंग्रेज़ो से लोहा लेने

जालियांवाला बाग की
हर चीख उन्हें रुलाती थी
प्रतिशोध की ज्वाला आखों से
हर नींद उड़ा ले जाती थी

उस बहरी हुकूमत को
बम से आवाज़ सुनाई थी
इंक़लाब के नारों से
अंग्रेज़ी नींव हिलायी थी

रंग दे बसंती की ताल पर
वे वीर जवान फिर झूमे थे
चलते हुए बेबाक़ी से जब
फंदे फांसी के चूमे थे

हस्ता देख उन प्यारों को
हर बच्चा बूढा रोया था
जाग गया था हर वो शख़्स
जो आंख मूंद कर सोया था

भारत के उन सपूतो का
बलिदान यही आज़ादी है
मत समझना इसे खिलौना
ये बोझ बड़ा ही भारी है
-ऋत्वीक