सजे गुलाब कांटो से, अब की बार नहीं,
जलें मकान लपटों से, अब की बार नहीं।
बुझा दो मशालें सारी, सुलगे नहीं हैं शोले,
नारें बुलंद जुलूसों में, अब की बार नहीं।
कानून से ज़ियादा, नकद हुई हैं भारी,
फंदों से कोई ख़ौफ़, अब की बार नहीं।
हो रही हैं भंवरो में, चुनाव की तैयारी,
बहारें फुलवारी में, अब की बार नहीं।
जल और ज्वाला की, हो रही हैं दोस्ती,
उपज इन फसलों में, अब की बार नहीं।
गूंगों के हुए मंच, और बहरे बने हैं श्रोता,
संभावना बदलाव की, अब की बार नहीं।
-ऋत्वीक